समुद्र-मंथन के अंत में आयुर्वेदाचार्य धन्वंतरि देव और दानवों को हाथों में अमृत-कलश लिए मिले थे। दरअसल समुद्र-मंथन की घटना की जानकारी विश्व के उन सभी क्षेत्रों में फैल गई थी, जिनकी अपनी सत्ता थी। उस समय धन्वंतरि चिकित्सा क्षेत्र के बड़े वैद्य के रूप में विख्यात हो चुके थे। जिस तरह से समुद्र-मंथन के यात्रियों को विभिन्न देशों में पहुंचने पर कामधेनु गाय, उच्चैश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, रंभा, लक्ष्मी, वारूणी, चंद्रमा, पारिजात वृक्ष, पांचजन्य शंख मिले, उसी प्रकार इस अल्पज्ञात क्षेत्र में धन्वंतरि मिले। हालांकि धन्वंतरि जिस औषधीय वन-प्रांतर में रहते थे, उस भूखंड में उरू, पुरू आदि पहले ही पहुंच गए थे। धन्वंतरि उन्हीं के वंशज थे। धन्वंतरि और इस क्षेत्र के मुखियाओं को जब देव व असुरों जैसे पराक्रमियों के आने की सूचना मिली, तो वे समझ गए कि इस समूह से किसी भी प्रकार का संघर्ष उचित नहीं है। अपितु इनसे बेहतर संबंध बनाना उचित है। बुद्धिमत्तापूर्ण इस पहल से धन्वंतरि ने भी समझा होगा कि उनके अब तक के जो भी औषधीय अनुसंधान हैं, उन्हें वैश्विक मान्यता तो मिलेगी ही, विश्व प्रसिद्ध देव व असुरों की चिकित्सा करने का भी अवसर मिलेगा। श्रीमद् भगवत के अनुसार समुद्र मंथन की प्रक्रिया आगे बढ़ने पर, प्रकट होने वाले 14 रत्नों में से एक भगवान धन्वंतरि थे। धन्वंतरि और उनकी पीढ़ियों ने ऐसी अनेक वनस्पतियों की खोज व उनका रोगी मनुष्यों पर प्रयोग किए।


इन प्रयोगों के निष्कर्ष श्लोकों में ढालने का उल्लेखनीय काम भी किया, जिससे इस खोजी विरासत का लोप न हो। इन्हीं श्लोकों का संग्रह ‘आयुर्वेद’ है। एक लाख श्लोकों की इस संहिता को ‘ब्रह्म-संहिता’ भी कहा जाता है। इन संहिताओं में सौ-सौ श्लोक वाले एक हजार अध्याय हैं। बाद में इनका वर्गीकरण भी किया गया। इसका आधार अल्प-आयु तथा अल्प-बुद्धि को बनाया गया। वनस्पतियों के इस उपचार विधियों का संकलन ‘अथर्ववेद’ भी है। अथर्ववेद के इसी सारभूत संपूर्ण आयुर्वेद का ज्ञान धन्वंतरि ने पहले दक्ष प्रजापति को दिया और फिर अश्विनी कुमारों को पारंगत किया। अश्विनी कुमारों ने ही वैद्यों के ज्ञान वृद्धि की दृष्टि से ‘अश्विनी कुमार संहिता’ की रचना की। एक अन्य पुराण-कथा में उल्लेख है कि एक बार वायुयान से भूलोक पर दृष्टिपात करने पर इंद्र ने मनुष्यों को बड़ी संख्या में रोगग्रस्त पाया। उन्होंने धन्वंतरि को आयुर्वेद का संपूर्ण ज्ञान देने के लिए ज्ञान परंपरा की परिपाटी चलाने का अनुरोध किया। इसके बाद धन्वंतरि ने काशी के राजा दिवोदास के रूप में जन्म लिया और काशीराज कहलाए। अपने पिता विश्वामित्र की आज्ञा पाकर महर्षि सुश्रुत अपने साथ अन्यान्य एक सौ ऋषि-पुत्रों को लेकर काशी पहुंचे और वहां सुश्रुत ने ऋषि-पुत्रों के साथ धन्वंतरि से आयुर्वेद की शिक्षा ली। इसके बाद इस समूह ने लोक कल्याणार्थ संहिताओं एवं ग्रंथों की रचना की और उनके माध्यम से समस्त भूमंडल के लोगों को निरोगी बनाने की उपचार पद्धतियां शुरू कीं।


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अथर्ववेद में भेषजों की उपयोगिताओं के वर्णन हैं। भेषजों के सुनिश्चित गुणों और उपयोगों का उल्लेख कुछ अधिक विस्तार से आयुर्वेद में हुआ है। यही आयुर्वेद भारतीय चिकित्सा विज्ञान की आधारशिला है। इसे उपवेद भी माना गया है। इसके आठ अध्याय हैं जिनमें आयुर्विज्ञान और चिकित्सा के विभिन्न पक्षों पर विचार किया गया है। इसका रचनाकाल पाश्चात्य विद्वानों ने ईसा से ढाई से तीन हजार वर्ष पुराना माना है। इसके आठ अध्याय हैं, इसलिए इसे ‘अष्टांग आयुर्वेद’ भी कहा गया है। आयुर्वेद की रचना के बाद पुराणों में सुश्रुत और चरक ऋषियों और उनके द्वारा रचित संहिताओं का उल्लेख है। सुश्रुत संहिता में शल्य-विज्ञान का विस्तृत विवरण है। इसी काल में चरक संहिता का प्रादुर्भाव माना जाता है। इसमें चिकित्सा विज्ञान विस्तृत रूप में सामने आया है। इसमें औषधियों की मात्र और सेवन विधियों का भी तार्किक वर्णन है। इनका आज की प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों से साम्य भी है। यहां तक कि कुछ विधियों में इंजेक्शन द्वारा शरीर में दवा पहुंचाने का भी उल्लेख है। यह वह समय था जब भारतीय चिकित्सा विज्ञान अपने उत्कर्ष पर था और भारतीय चिकित्सकों की भेषज तथा विष विज्ञान संबंधी प्रणालियां अन्य देशों की तुलना में उन्नत थीं। भूमि गर्भ में समाए अनेक खनिज पदार्थो के गुणों का ऋषि परंपरा ने गहन अध्यन किया था और रोग तथा भेषजों की मदद से उनके उपचार की दिशा में वैज्ञानिक ढंग से अनुसंधान किए। सुश्रुत और चरक की आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में अब गणना होने लगी है। यही कारण है कि एलोपैथी की दवा निर्माता कंपनियां भी सुश्रुत और चरक के अपने कैलेंडरों में शल्य क्रिया करते हुए चित्र छापने लगे हैं।


आखिर इतनी उत्कृष्ट चिकित्सा पद्धति होने के पश्चात भी इसका पतन क्यों हुआ? हमारे यहां संकट तब पैदा हुआ, जब तांत्रिकों, सिद्धों और पाखंडियों ने इनमें कर्मकांड से जीवन की समृद्धि का घालमेल शुरू कर दिया। इसके तत्काल बाद एक और बड़ा संकट तब आया, जब भारत पर यूनानियों, शकों, हूणों और मुसलमानों के हमलों का सिलसिला शुरू हो गया। इस संक्रमण काल में आयुर्विज्ञान की ज्योति नष्टप्राय हो गई। नए शोध व मौलिक ग्रंथों का सृजन थम गया। इन आक्रमणों के कारण जो अराजकता, हिंसा और अशांति फैली, उसके चलते अनेक आयुर्वेदिक ग्रंथ छिन्न-भिन्न हो गए। आयुर्विज्ञान की जो शाखाएं थीं, वे पंडे और पुजारियों के हवाले हो गईं, नतीजतन भेषज और जड़ी-बुटियों के स्थान पर तंत्र-मंत्र के प्रयोग होने लग गए। इसके बाद जो रही-सही ज्ञान परंपराएं थीं, उन पर सुनियोजित ढंग से पानी फेरने का काम अंग्रेजों ने कर दिया। डॉ. धर्मपाल की पुस्तक ‘इंडियन साइंस एंड टेक्नोलॉजी’ में लिखा है कि 1731 में बंगाल में डॉ. ओलिवर काउल्ट नियुक्त थे। काउल्ट ने लिखा है कि ‘भारत में रोगियों को टीका देने का चलन था। बंगाल के वैद्य सुई से चेचक के घाव की पीब लेकर उसे टीका की जरूरत पड़ने वाले रोगी के शरीर में कई बार चुभोते थे। इस उपचार पद्धति को संपन्न करने के बाद वे उबले चावल की लेई सी बनाकर रोगी के घाव पर चिपका देते थे। इसके रोगी को बुखार आता था। वे रोगी को ठंडी जगह में रखते थे और उसे ठंडे पानी से नहलाते थे ताकि शरीर का ताप नियंत्रित रहे।

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