कॉग्निटिव न्यूरो साइंटिस्ट गिना रिप्पन की ज़िंदगी में साल 1986 में 11 जून सबसे हसीन दिन था।इस दिन उन्होंने अपनी बेटी को जन्म दिया था।और यही वो दिन था जब मशहूर फ़ुटबॉलर गैरी लिनेकर ने मर्दों के फ़ुटबॉल वर्ल्ड कप में हैट्रिक बनाई थी। उस रात रिप्पन के वॉर्ड में 9 बच्चे पैदा हुए थे। सभी रोते हुए नवजातों को बारी-बारी से उनकी मां को सौंपा जा रहा था।

 


जब रिप्पन को उनकी बच्ची सौंपी गई तो नर्स ने कहा, "ये बच्ची सबसे ज़्यादा शोर कर रही है।लड़की जैसी आवाज़ ही नहीं लग रही।" नर्स की बात सुनकर रिप्पन सोच में पड़ गईं कि अभी उनकी बच्ची को पैदा हुए 10 मिनट भी नहीं हुए और उसे लड़की और लड़के की श्रेणी में बांट दिया गया। लड़का-लड़की में भेद वाली ऐसी सोच पूरी दुनिया फैली है।

 


जबकि ईश्वर ने दोनों को एक जैसा बनाया है।ख़ुद इंसान भी यही मानता है कि मर्द और औरत ज़िंदगी की गाड़ी के दो पहिए हैं। फिर भी दोनों आपस में ही फ़र्क़ करते हैं।मर्द और औरत के ज़हन बुनियादी तौर पर एक दूसरे से अलग हैं। इस विचार को चुनौती देने के लिए रिप्पन कई दशकों से काम कर रही हैं।उनका काम 'द जेंडर्ड ब्रेन' नाम की किताब में दर्ज हैं।

 

महिलाओं और पुरुषों का दिमाग
रिप्पन ख़ुद इस बात की वक़ालत करती हैं कि इंसान का दिमाग़ लिंग की बुनियाद पर एक दूसरे अलग नहीं होता। बल्कि समाज इसका एहसास कराता है।ऐसे में उनकी किताब का शीर्षक थोड़ा गुमराह करने वाला सा लगता है। पैदाइश से लेकर बुढ़ापे तक हमारे बर्ताव, चाल-ढाल और सोच-समझ के तरीके को आधार बनाकर ही मान लिया गया है कि औरत और मर्द के दिमाग़ में बुनियादी फ़र्क़ है। रिप्पन को इस बात की तकलीफ़ ज़्यादा है कि वर्ष 2019 में भी हम ऐसी दक़ियानूसी सोच को आगे बढ़ा रहे हैं।लैंगिक भेदभाव आज भी जारी है।भले ही इसका रंग-रूप बदल गया है।

 


क़रीब 200 बरसों से हम ये जानने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या मर्द का दिमाग़ औरत के दिमाग़ से अलग है।लेकिन हमेशा ही इस सवाल का जवाब नहीं में रहा है।साइंस और तकनीक की मदद लेने के बाद भी कुछ पुराने ख़याल पूरी तरह ग़लत साबित हुए हैं।फिर भी समाज से ये फ़र्क़ नहीं मिट रहा है। एक सच ये भी है कि महिलों का मस्तिष्क पुरूषों के मुक़ाबले औसतन छोटा होता है।औरतों के मस्तिष्क का आकार पुरुषों से क़रीब 10 फ़ीसद छोटा होता है।और इसी की बुनियाद पर महिलाओं की समझ को कम कर के आंका जाता है। रिप्पन कहती हैं अक़्ल औऱ समझ का संबंध अगर मस्तिष्क के आकार से होता, तो हाथी और स्पर्म व्हेल का दिमाग़ आकार में इंसान से कहीं ज़्यादा बड़ा होता है।तो फिर उनमें इंसान जैसी समझ क्यों नहीं होती।बताया जाता है कि मशहूर वैज्ञानिक आईंस्टाइन का मस्तिष्क औसत मर्दों के मुक़ाबले छोटा था।लेकिन उनकी समझ और अक़्ल का कोई सानी नहीं था।

 


दिमाग़ के आकार का अक्ल से रिश्ता
इस बुनियाद पर कहा जा सकता है कि दिमाग़ के आकार का अक़्लमंदी से कोई लेना देना नहीं है।फिर भी, समाज में फ़र्क़ करने वाली सोच अपनी जड़ मज़बूत किए हुए है। नक़्शे पढ़ने का काम पूरी तरह समझ की बुनियाद पर आधारित है।लेकिन अक्सर ये काम मर्दों को ही दिया जाता है क्योंकि माना जाता है कि वही इस काम को बेहतर कर सकते हैं। रिप्पन का कहना है कि मस्तिष्क के आकार के अंतर को कुछ ज़्यादा ही बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है।ये तो हम जानते हैं कि हमारा मस्तिष्क दो गोलार्ध में बंटा होता है। इन दोनों हिस्सों को बीच होता है कॉर्पस कैलोसम जो दिमाग़ के दोनों हिस्सों के बीच पुल का काम करता है। इसे इंफ़ॉर्मेशन ब्रिज या सूचना का पुल भी कहते हैं।और ये ब्रिज पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं में ज़्यादा व्यापक होता है।

 


क्या कहता है विज्ञान?
साइंस की ये रिसर्च महिलाओं को अतार्किक बताने वालों को आईना दिखाती है।अक्सर कहा जाता है कि महिलाओं में सोचने समझने की क्षमता कम होती है। क्योंकि, उनकी सोच पर जज़्बात ज़्यादा हावी रहते हैं।जबकि रिसर्च इन सभी बातों को ग़लत साबित करती है। रिप्पन अपनी क़िताब में लिखती हैं, 'आम धारणा ये है कि पुरुष गणित और विज्ञान के अच्छे जानकार होते हैं।इन दो मुश्किल विषयों को उनका दिमाग़ ज़्यादा बेहतर समझता है।इसलिए नोबेल पुरस्कार या ऐसे ही अन्य बड़े पुरस्कार जीतने पर उनका पहला हक़ है।जबकि ये दावे सरासर ग़लत हैं। दशकों की रिसर्च के बाद साबित हो गया है कि दिमाग़ एक ही तरह से काम करता है।यहां तक कि मर्द और औरत के मस्तिष्क की बनावट में फ़र्क़ कर पाना भी मुस्किल है।'

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